चौदहवां अध्याय

 

आंगिरस उपाखयान और गौओं का रूपक

 

अब हमें गौके इस रुपकको, जिसे हम वेदके आशयकी कुंजीके रूपमें प्रयुक्तु कर रहे हैं,  अंगिरस् ऋषियोंके उस उद्भुत उपाख्यान या कथानकमें देखना है जो सामान्य रूपसे कहें तो सारीकी सारी वैदिक गाथाओंमें सबसे अधिक महत्त्वका है ।

 

वेदके सूक्त, वे और जो कुछ भी हों सो हों, वे सारे-के-सारे मनुष्यके सखा और सहायकभूत कुछ ''आर्य'' देवताओंके प्रति प्रार्थनारूप हैं,  प्रार्थना उन बातोंके लिये है जो मंत्रोंके गायकोंको-या द्रष्टाओंको, जैसा कि वे अपने-आपको कहते हैं (कवि, ॠषि, विप्र ) -विशेष रूपसे वरणीय (वर, वार ), अभीष्ट होती थीं । उनकी ये अभीष्ट बातें, देयताओंके ये वर संक्षेपसे 'रयि', 'राधस्'  इन दो शब्दोंमें संगृहीत हो जाते हैं,  जिनका अर्थ भौतिक रूपसे तो धन-दौलत या समृद्धि हो सकता है और आध्यात्मिक रूपसे एक आनन्द या सुख-लाभ जो आत्मिक संपत्तिके किन्हीं रूपोंका आधिक्य होनेसे होता है । मनुष्य यक्षके कार्यमें, स्तोत्रमें, सोमरसमें, धृत या घीमें, सम्मिलित प्रयत्नके अपने हिस्सेके तौरपर, योग-दान करतां है । देवता यज्ञमें जन्म लेते है वे स्तोत्रके द्वारा, सोम-रसके द्वारा तथा घृतके द्वारा बढ़ते हैं और उस शक्तिमें तथा सोमके उस आनंद और मदमें भरकर वे यज्ञकर्ताके उद्देश्योंको पूर्ण करते हैं । इस प्रकार जो ऐश्वर्य प्राप्त होता है उसके मुख्य अंग 'गौ'  और 'अश्व' हैं; पर इनके अतिरिक्त और भी हैं,  हिरष्य (सोना ), वीर (मनुष्य या शूरवीर), रथ (सवारी करनेका रथ ), प्रजा या अपत्य (संतान ) ।. यज्ञके साधनोंको भी--अग्निको, सोमको, धृत को--देवता देते हैं और वे यज्ञ में इसके पुरोहित, पवित्रता-कारक, सहायक बनकर उपस्थित होते हैं, तथा यज्ञमें होनेवाले संग्राममें वीरोंका काम करते हैं,--क्योंकि कुछ शक्तियां एसी होती हैं जो यज्ञ तथा मंत्रसे घृणा करती हैं, यज्ञकर्तापर आक्रमण करती हैं और उसके अभीप्सित ऐश्वर्योंको उससे जबर्दस्ती छीन लेती या उसके पास पहुँचनेसे रोके रखती हैं । ऐसी उत्कण्ठासे जिस ऐश्वर्यकी कामनाकी जाती है उसकी मुख्य शर्ते है उषा तथा सूर्यका उदय होना और द्युलोककी वर्षाका और सात नदियों-भौतिक या रहस्यमय---

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( जिन्हें कि वेदमें द्युलोककी शक्तिशालिनी वस्तुएँ 'दिवो यह्वी:' कहा गया  है ) का नीचे आना । पर यह ऐश्वर्य भी, गौओंकी; घोड़ोकी , सोनेकी, रथोंकी,  संतानकी यह परिपूर्णता भी अपने-आपमें अंतिम उद्देश्य नहीं है; यह सब एक साधन है दूसरे लोकोंको खोल देनेका, 'स्व:' को अधिगत कर लेनेका, सौर लोकोंमें आरोहण करनेका,  सत्यके मार्ग द्वारा उस ज्योतिको और उस स्वर्गीय सुखको पा लेनेका जहां मर्त्य अमरतामें पहुँच जाता है ।

 

यह है वेदका असंदिग्ध सारभूत तत्त्व । कर्मकाण्डपरक और गाथापरक अभिप्राय जो इसके साथ बहुत प्राचीन कालसे जोड़ा जा  चुका है, बहुत प्रसिद्ध है और उसका यहां विशेष रूपसे वर्णन करनेकी आवश्वकता नहीं है |  संक्षेपमें, यह यज्ञिय पूजाका अनुष्ठान है जिसे मनुष्यका मुख्य कर्तव्य माना गया है और इसमें दृष्टि यह हैं कि इससे  इहलोकमें धन-दौलतका उपभोग प्राप्त. होगा और यहाँके बाद परलोकमें  स्वर्ग मिलेगा ।  इस संबंधमें  हम आधुनिक दृष्टिकोणको भी जानते हैं,  जिसके अनुसार सूर्य, चन्द्रमा,  तारे,उषा, वायु. वर्षा,  अग्नि,  आकाश,  नदियों तथा प्रकृतिकी अन्य शक्तियोंको सजीव देवता मानकर उनकी पूजा करना,  यज्ञके द्वारा इन देवताओंको प्रसन्न करना, इस जीवनमें मानव और द्राविड़ शत्रुओंसे और प्रतिपक्षी दैत्यों तथा मर्त्य लुटेरोंका मुकाबला करके धन-दौलतको जीतना और अपने अधिकारमें रखना और मरनके बाद मनुष्यका देवोंके स्वर्गको प्राप्त कर लेना, बस यही वेद है । अब हम पाते हैं कि अतिसामान्य लोगोंके लिये ये विचार चाहे कितने ही युक्तियुक्त क्यों न रहें हों, वैदिक युगके  द्रष्टाओंके लिये, ज्ञान-ज्योसिसे प्रकाशित मनों ( कवि, विप्र ) के लिये वे वेदका आन्तरिक अभिप्राय नहीं थे । उनके लिये तो ये भौतिक पदार्थ किन्हीं अभौतिक वस्तुओंके प्रतीक थे; 'गौएं'  दिव्य उषाकी किरणें या प्रभाएँ थीं,  'घोड़े' और 'रथ' शक्ति तथा गतिके प्रतीक थे, 'सुवर्ण'  था प्रकाश,  एक दिव्य सूर्यकी प्रकाशमय संपत्ति-सच्चा प्रकाश, 'ॠतं ज्योति:'', यज्ञसे प्राप्त होनेवाली. धन-संपत्ति और स्वयं यज्ञ ये दोनों अमने सब अंग-उपांगोंके साथ,  एक उच्चतर उद्देस्य--अमरताकी प्राप्ति-के लिये मनुष्यका जो प्रयत्न है और उसके जो साधन हैं, उनके प्रतीक थे । वैदिक द्रष्टाकी अभीप्सा थी मनुष्यके जीवनको समृद्ध बनाना और उसका विस्तार करना,  उसके जीवन-यज्ञमें विविध. दिव्यत्यको जन्म देना और उसका निर्माण करना, उन दिव्यत्वोंकी शक्तिभुत जो बल, सत्य, प्रकाश, आनन्द आदि हैं उनकी वृद्धि करना जबतक कि मनुष्यका  आत्मा अपनी सत्ताके परिवर्धित और उत्तरोत्तर खुलते जानेवाले लोकोंमेंसे होता हुआ ऊपर ने चढ़ जाय,   जबतक वह यह न देख ले कि दिव्य द्वार

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(देवीर्द्वार:) उसकी पुकारपर खुलकर झूलने लगते हैं और जबतक वह उस दिव्य सत्ताके सर्वोच्च आनंदके अंदर प्रविष्ट न हो जाय जो द्यौ और पृथिवीसे परेका है । यह उर्द्व-आरोहण ही अंगिरस् ऋषियोंकी रुपककथा है ।

 

वैसे तो सभी देवता विजय करनेवाले और गौ,  अश्व तथा दिव्य ऐश्वयोंको देनेवाले हैं,  पर मुख्य रूपसे यह महान् देवता इन्द्र है जो इस संग्रामका वीर और योद्धा है और जो मनुष्यके लिये प्रकाश तथा शक्तिको जीतकर देता हे । इस कारण इन्द्रको निरन्तर गौओंका स्वामी 'गोपति' कहकर संबोघित किया गया है; उसका ऐसा भी आलंकारिक वर्णन आता है कि वह स्वयं गौ और घोड़ा है; वह अच्छा दोग्धा है जिसकी कि ॠषि दुहनेके लिये कामना करते हैं और जो कुछ वह दुहकर देता है वे हैं पूर्ण रूप और अंतिम विचार; वह 'वृषभ'  है, गौओंका सांड है; गौओं और घोड़ोंकी वह संपत्ति जिसके लिये मनुष्य इच्छा करता है, उसीकी है । 6.28.5 में यह कहा भी है--'हे मनुष्यो ! ये जो गौएँ हैं,  वे इन्द्र हैं; इन्द्रको ही मैं अपने हृदय से और मनसे चाहता हूँ ।'1  गौओं और इन्द्रकी यह एकात्मता महत्त्वकी है और हमें इसपर फिर लौटकर आना होगा जब हम इन्द्रको कहे मधुच्छन्दस्के सूक्तोंपर विचार करेंगे ।

 

पर साधारणतया ऋषि इस ऐश्वर्यकी प्राप्तिका इस तरह अलंकार खींचते है कि यह एक विजय है, जो कि कुछ शक्तियोंके मुकाबलेमें की गयी है; वे शक्तियाँ 'दस्यु'  हैं,  जिन्हें कहीं इस रूपमें प्रकट किया गया है  कि वे अभीप्सित ऐश्वयौंको अपने कब्जेमें किये होते हैं जिन ऐश्वर्योंको फिर उनसे छीनना होता है और कहीं इस रूपमें वर्णन है कि वे उन ऐश्वर्योंको आर्योंके पाससे चुराते हैं और तब आर्योंको देवोंकी सहायतासे उन्हें खोजना और फिरसे प्राप्त करना होता है । इन वस्तुओंको जो कि गौओंको अपने कब्जेमें किये होते हैं या चुराकर लाते हैं, 'पणी' कहा गया है '।  इस 'पणि'  शब्दका मूल अर्थ कर्ता, व्यौहारी या व्यापारी रहा प्रतीत होता है, पर इस अर्थको कभी-कभी इससे जो और दूरका 'कृपण'का भाव प्रकट होता है उसकी रंगत वे दी जाती है । उन पणियोंका मुखिया है  'बल'  एक दैत्य जिसके नामसे संभवत: ' चारों ओरसे घेर लेनेवाला'  या 'अंदर बन्द कर लेनेवाला'  यह अर्थ निकलता है, जैसे 'वृत्र'का अर्थ होता है विरोधी, विध्न डालनेवाला या सब ओरसे बन्द करके ढकनेवाला ।

. यह सलाह देना बड़ा आसान है कि पणि तो द्रवीड़ी हैं और

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1   इमा या गाव: स जनास इन्द्र:, इच्छामि-हृदा मनसा चिदिन्द्रम् |

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'वल' उनका सरदार या देवता है,  जैसा कि वे विद्वान् जो वेद में प्रारंभिक से प्रारंभिक इतिहासको पढ़नेकी कोशिश करते हैं,  कहते भी हैं । पर यह आशय जुदा करके देखे गये संदर्भोमें ही ठीक ठहराया जा सकता है; अधिकतर सूक्तोंमें तो ॠषियोंके वास्तविक शब्दोंके साथ इसकी संगति ही नहीं बैठती और इससे उनके प्रतीक तथा अलंकार नुमायशी निरर्थक बातोंके एक गड़बड़ मिश्रणसे दीखने लगते हैं । इस असंगतिमें की कुछ बातोंको हम पहले ही देख चुके है; यह हमारे सामने अघिकाघिक स्पष्ट होती चलेगी, ज्यों-ज्यों हम खोयी हुई गौओंके कथानककी और अधिक नजदीकसे परीक्षा करेंगे ।

 

'वल'  एक गुफामें; पहाड़ोंकी कंदरा ( बिल ) में रहता है इन्द्र और अंगिरस् ऋषियोंको उसका पीछा करके वहाँ पहुँचना है और उसे अपनी दौलतको छोड़ देनेके लिये बाध्य करना है.; क्योंकि वह गौओंका 'वल'  है--'वलस्य गोमत:' ( 1. 11 .5 ) । पणियोंको भी इसी रूपमें निरूपित किया गया है कि वे चुरायी हुई गौओंको पहाड़की एक गुफामें छिपा देते हैं,  जो उनका छिपानेका कारागार 'वव्र' या गौओंका बाड़ा 'व्रज', कहलाता है या कभी-कभी सार्थक मुहावरे में उसे 'गव्यम् ऊर्वम्' ( 1.72 .8 ) कह दिया जाता है, जिसका शाब्दिक अर्थ है, गौओंका विस्तार'  या यदि 'गो'का दूसरा भाव लें, तो ''ज्योतिर्मय विस्तार", जगमगाती गौओंकी विस्तृत संपत्ति । इस खोयी हुई संपत्तिको फिरसे पा लेनेके लिये 'यज्ञ' करना पड़ता है; अंगिरस् या बृहस्पति और अगिर सच्चे शब्दका मन्त्रका,  गान करते हैं; सरमा स्वर्गकी कुतिया, ढूंढ़कर पता लगाती है कि गौएँ पणियोंकी गुफामें है; सोम-रससे बली हुआ इन्द्र और उसके साथी द्रष्टा अगिस् पदचिह्नोंका अनुसरण करते हुए गुफामें जा घुसते हैं, या बलात् पहाड़के मजबूत स्थानोंको तोड़कर खोल देते हैं,  पणियोंको हराते हैं और गौओंको छुड़ाकर ऊपर हांक ले जाते है ।

 

पहले हम इससे संबंध रखनेवाली कुछ उन बातोंको ध्यानमें ले आवें जिनकी कि उपेक्षा नहीं की जानी चाहिये, जब कि हम इस रूपक या कथा-नकका असली अभिप्राय निश्चित करना चाहते हैं । सबसे पहली बात यह कि यह कथानक अपने रूपवर्णनोमें चाहे कितना यथार्थ क्यों न हो तो भी वेदमें यह एक निरी गाथात्मक परंपरामात्र नहीं है, बल्कि वेदमें इसका प्रयोग एक स्याधीनता और तरलताके साथ हुआ है जिससे कि पवित्र परंपराके पीछे छिपा हुआ इसका सार्थक आलंकारिक रूप दिखायी देने लगता है । बहुधा  वेदमें इसपरसे इसका गायात्मक रूप. उतार डाला गया है और इसे मंत्र-गायककी वैयक्तिक आवश्यकता या अभीप्साके अनुसार प्रयुक्त

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किया गया है । क्योंकि यह एक क्रिया है जिसे इन्द्र सदैव कर सकनेमें समर्थ है; यद्यपि यह इसे एक बार हमेशाके किये नमूनेके रूपमें अंगिरसोंके द्वारा कर चुका है फिर भी वह वर्तमानमें भी इस नमूनेको लगातार दोह-राता है, 'वह निरन्तर गौओंको खोजनेवाला--' गवेषणा'  करनेवाला है और इस चुरायी हुई संपत्तिको फिरसे पा लेनेवाला है ।

 

कहीं-कहीं हम केवल इतना ही पाते हैं कि गौएं चुरायी गयीं और इन्द्रने उन्हें फिरसे पा लिया; सरमा, अंगिरस् या पणियोंका कोई उल्लेख नहीं होता । पर सर्वदा यह इन्द्र भी नहीं होता जो कि गौओंको फिरसे छुड़ाकर लाता है ।  उदाहरणके लिये, हमारे पास अग्निदेवताका एक सूक्त है, पंचम मण्डलका दूसरा सूक्त,  जो अत्रियोंका है । इसमें गायक चुरायी हुई गौओंके अलंकारको खुद अपनी ओर लगाता है ऐसी भावामें जो इसके प्रतीकात्मक होनेके रहस्यको स्पष्ट तौरसे खोल देती है ।

 

'अग्निको बहुत काल तक माता पृथ्वी भींचकर अपने गर्भमें छिपाये जती है, वह उसे उसके पिता द्यौको नहीं देना चाहती; हां वह तबतक छिप पड़ा रहता है, जबतक कि वह माता सीमित रूपमें संकुचित रहती है ( पेषी ), अंतमें जब वह बड़ी और विस्तीर्ण ( महिषी ) हो जाती है तब उस अग्निका जन्म होता है ।1 अग्निके इस जन्मका संबंध चमकती हुई गौओंके प्रकट होने या दर्शन हनेके साथ दिखाया गया है । "मैंने दूर पर एक खेतमें एक को देखा, जो अपने शस्त्रोंको तैयार कर रहा था, जिसके दांत सोनेके थे, रंग साफ चमकीला था; मैंने उसे पृथक्-पृथक् हिस्सोंमें अमृत ( अमर रस, सोम ) दिया; वे मेरा क्या कर लेंगे जिनके पास इन्द्र नहीं है और जिनके पास स्तोत्र नहीं है ? मैंने उसे खेतमें देखा, जैसे कि यह एक निरन्तर विचरता हुआ, बहुरूप, चमकता हुआ. सुखी गौओंका झुंड हो; उन्होंने उसे पकड़ा नहीं, क्योंकि 'वह'  पैदा हो गया था; वे ( गौएं ) भी जो बूढ़ी थीं, फिरसे जवान हो जाती हैं ।"2 परन्तु यदि इस समय ये दस्यु जिनके पास न इन्द्र है. और न स्तोत्र है, इन चमकती हुई. गौओंको

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1. कुमारं माता युवतिः  समुब्ध गहा विभर्ति न ददाति पित्रे.... 5.2.1

   कमेतं त्वं युवते कुमार पेषी विभर्षि महिषी जजान |.... 5.2. 2

2. हिरण्यन्तं रुचिवर्णमारात् क्षेत्रादपश्यामायुधा मिमानम् ।

  ददानो अस्मा अमृतं विप्रुक्वत् किं मामनिन्द्राः  कृष्णवन्ननुकथाः ||

  क्षेत्रादपश्यं तनुतश्चरन्तं समद्युथं न पुरु शोभमानम् ।

  न ता अगृभ्रन्नजनिष्ठ ही वः पलिक्नीरिद्युवतयो भवन्ति ||    5.2.3,4

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पकड़नेमें अशक्त हैं,  तो इससे पहले वे सशक्त थे जब कि यह चमकीला और जबर्दस्त देवत्व उत्पन्न नहीं हुआ था । ''वे कौन थे  जिन्होंने मेरे बल-को ( मर्यकम्; मेरे मनुष्योंको समुदायको, मेरे वीरोंको ) गौओंसे अलग किया क्योंकि उन (मेरे मनुष्यों ) के पास कोई योद्धा और गौओंका रक्षक नहीं था । जिन्होंने मुझसे उनको लिया है, वे उन्हें छोड़ दें, वह जानता है और पशुओंको हमारे पास हांकता हुआ आ रहा है ।"1

 

हम उचित रूपसे प्रश्न कर सकते हैं कि ये चमकनेवाले पशु क्या हैं,  ये गौएं कौन हैं जो पहले बूढ़ी थीं और फिरते जवान हो जाती हैं ? निश्चित ही वे भौतिक गौएं नहीं हैं,  न ही यह खेत कोई यमुना या जेहलमके पासका पार्थिव खेत है, जिसमें कि ऋषिको सोनेके दांतोंवाले योद्धा देवका औरमकनेवाले पशुओंका भव्य दर्शन हुआ है । वे हैं या तो भौतिक उषाकी या दिव्य उषाकि गौएं, पर इनमेंसे पहला अर्थ लें तो भाषा ठीक नहीं जंचती; सो यह रहस्यमय दर्शन निश्चित रूपसे दिव्य प्रकाशका दर्शन है, जिसे कि यहाँ आलंकारिक रूपसे वर्णित किया गया है । वे  ( गौएं ) हैं ज्योतियां जिन्हें कि अन्धकारकी शक्तियोंने चुरा लिया था और जो अब फिरसे दिव्य रूपमें प्राप्त कर ली गयी हैं,  भौतिक अग्निके देवता द्वारा नहीं, बल्कि जाज्वल्यमान शक्ति ( अग्नि देव ) के द्वारा जो कि पहले भौतिक सत्ताकी क्षुद्रतामें छिपी पड़ी थी और अब उससे मुक्त होकर प्रकाश-मय मानसिक क्रियाकी निर्मलताओंमें प्रकट होती है ।.

 

तो केवल इन्द्र ही ऐसा देवता नहीं है जो इस अन्धकारमयी गुफाको तोड़ सकता है और खोयी हुई ज्योतियोंको फिरसे ला सकता है । और भी कई देवता हैं जिनके साथ भिन्न-भिन्न सूक्तोंमें इस महान् विजयका संबंध जोड़ा गया है । उषा उनमेंसे एक है, वह दिव्य उषा जो इन गौओंकी माता है । ''सच्चे देवोंके साथ जो सच्ची है, महान् देवोंके साथ जो महान् है, यज्ञिय देवोंके साथ यज्ञिय देवत्ववाली है, वह दृढ़ स्थानोंको तो ड़कर खोल देती है, वह चमकीली गौओंको दे देती है; गौएं उषाके प्रति रंभाती हैं ।''2  अग्नि एक दूसरा है, कभी वह स्वयं अकेला युद्ध करता है, जैसे कि हम पहले देख चुके हैं,  और कभी इन्द्रके साथ मिलकर जैसे--'हे इन्द्र

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1. के मे मर्यकं वियवन्त गोभिर्न येषां, गोपा अरणअश्विवास |

      य ई जगृभूरव ते सृजन्त्वाजाति पश्य उप नश्चिकित्वान् ||   5.2.5

     2.  सत्या सत्येभिर्महती महद्भिर्देदी देवेभिर्यजता यजत्रैं:

.                रुजद् दर्ळ्हानि ददस्त्रियाां प्रति गाव उषसं वावशन्त |।, 7.75. 7

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हे अग्नि, तुम दोनोंने गौओंके लिये युद्ध किया है ( 6.60.2 )'1 या फिर सोमके साथ मिलकर जैसे--'हे अग्नि और सोम ! वह तुम्हारी वीरता ज्ञात हो गयी थी, जब कि तुमने पणियोसे गौओंको लूटा था ।. ( 1-93-4 ) ।'2  सोमका संबंध एक दूसरे संदर्भमें इस विजयके लिये इन्द्रके साथ जोड़ा गया है; 'इस देव ( सोम ) ने शक्तिसे उत्पन्न होकर, अपने साथी इन्द्रके साथ पणियोंको ठहराया'3 और दस्युओंके विरुद्ध लड़ते हुए देवोंकि सब वीरतापूर्ण कार्योको किया (6.44.22, 23, 24 ) ।  6.62.11 में अश्विनोंको भी इस कार्यसिद्धिको करनेका गौरव दिया गया है--'तुम दोनों गौओंसे परिपूर्ण मजबूत बाड़ेके दरवाजोंको खोल देते हो ।'4  और फिर  1.112.18 में पुन: कहा है, 'हे अगिर: ! ( युगल अश्विनोंको कभी-कभी इस एकत्ववाची नाममें संगृहीतकर दिया जाता है ) तुम दोनों मनके द्वारा आनन्द लेते हो और तुम सबसे पहले गौओंकी धारा-गोअर्णस:--के विवरमें प्रवेश करते हो,5  'गोअर्णस:' का अभिप्राय स्पष्ट है कि प्रकाशकी उन्मुक्त हुई, उमड़ती हुई धारा था समुद्र ।

 

बृहस्पति और भी अधिकतर इस विजयका महारथी है । '' बृहस्पति-न, जो सर्वप्रथम परम व्योममें महान् ज्योतिमेंसे पैदा हुआ, जो सात मुखों-वाला है, बहुजात है, सात किरणोंवाला है, अन्धकारको छिन्न-भिन्न कर दिया; उसने स्तुऔर ऋक्को धारण करनेवाले अपने गणके साथ,  अपनी गर्जना द्वारा 'वल'के टुकड़े-टुकड़े कर दिये । गर्जता हुआ वृहस्पति हव्यको प्रेरित करनेवाली चमकीली गौओंको ऊपर हाँक ले गया और वे गौएं प्रत्युत्तरमें रंभायीं ( 4.50.5 )' और 6.73.1 और 3 में फिर कहा है, '' बृहस्पति जो पहाड़ी ( अद्रि ) को तोड़नेवाला है, सबसे पहले उत्पन्न हुआ है, आंगिरस है;.. उस बृहस्पतिने खजानोंको ( वसूनि ) जीत लिया

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  1. ता योषिष्टमभि गा :

  2. अग्नीषोमा चेति तद्वीर्य वां यदमुष्णीतमभवसं पर्णिं गा :

  3. अयं देव: सहसा जायमान इन्द्रेण युजा पणिमस्तभायत् । 6.44.22

  4. ळहस्य चिद् गोमतो वि ब्रजस्य दुरो वर्तम् ।

  5. याभिरङ्गिरों मनसा निरण्यथोऽप्रं गच्छथो विवरे गो-अर्णस:

  6. बृहस्पतिः प्रथमं जायमानो महो ज्योतिष: परमे व्योमन् ।

    सप्तास्यस्तुविजातो रवेण वि सप्तरश्मिरधमत्तमांसि ।।

    स सुष्टुभा स ॠक्वता गणेन बलं रुरोज कलिगं रवेण ।

    बृहस्पतिरुस्त्रिया हव्यसूदः कनिक्रदद् वावशतीरुदाजत् ||

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इस देवने गौओंसे भरे हुए बड़े-बड़े बाड़ोंको जीत लिया ।''1  मरुत् भी जो कि बृहस्पतिकी सच्च ऋक्के गायक हैं,  इस दिव्य क्रियासे संबंध रखते हैं, यद्यपि अपेक्षाकृत कम साक्षात् रूपसे । ', जिसका हे मरुतो ! तुम पालन करते हो, बाड़ेको तोड़कर खोल देगा', (6.66.8 ) 2 । और एक दूसरे स्थान पर मरुतोंकी गौएं सुननेमें आती हैं ( 1.38.2 ) 3

 

पूषाका भी, जो कि पुष्टि करनेवाला है, सूर्य देवताका एक रूप है, आवाहन किया गया है कि वह चुरायी हुई गौओंका पीछा करे और उन्हें फिरसे दूंढ़कर लाये, ( 6.54 ) -'पूषा हमारी गौओंके पीछे-पीछे जाये, पूषा हमारे युद्धके घोड़ोंकी रक्षा करे ( 5 )... हे पूषन्, तू गौओंके पीछे जा  ( 6 )... जो खो गया था उसे फिरसे हमारे पास हांककर ला दे ( 10 ) 4 |'  सरस्वती भी पणियोंका वध करनेवालीके रूपमें आतीं है । और मधुच्छन्द्-के सूक्त( 1. 11 .5 ) में हमें अद्भुत अलंकार मिलता है, 'ओ वज्रके देवता, तूने गौओंवाले वलकी मुफाको खोल दिया; देवता निर्भय होकर शीघ्रतासे गति करते हुए (या अपनी शक्तिको व्यक्त करते हुए ) ''तेरे अंदर प्रविष्ट हो गये ।''5

 

क्या इन सब विभिन्न वर्णनोंमें कुछ एक निश्चित अभिप्राय निहित है, जो इन्हें परस्पर इकट्ठा करके एक संगतिमय विचारके रूपमें परिणत कर देगा, अथवा यह बिना किसी नियमके यूं ही हो गया है कि ऋषि अपने खोये हुए पशुओंको ढूंढ़नेके लिये और युद्ध करके उन्हें फिरसे पानेके लिये कभी इस देवताका आवाहन करने लगते हैं और कभी उस देवेताका ? बजाय इसके कि हम वेदके अंशोंको पृथक्-पृथक् लेकर उनके विस्तारमें अपने-आपको भटकावें यदि हम वेद के विचारोको एक संपूर्ण .अवयवीके रूपमें लेना स्वीकार करें तो हमें इसका बड़ा सीधा और संतोषप्रद उत्तर मिल जायगा । खोयी हुई गौओंका यह वर्णन परस्परसंबद्ध प्रतीकों और अलंकारोंके पूर्ण संस्थानका अंगमात्र है । वे गौएं यज्ञके द्वारा फिरसे प्राप्त होती हैं और आगका 

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    1.  यो अद्रिभित् प्रथम्जा ॠतावा बुहस्पसिराङ्गिरसो हमिष्मानू ।....

       बृहस्पतिः समजयदू वसूनि महो व्रजान् गोमतो देव एव: ।... 6.73.1,3 

     2.  रुतो यमवय... स व्रजं वर्ता ।   3.  '' क्व वो गावो न रण्यन्ति ।  4. पूषा गा अन्वेतु नः पूषा रक्षत्वर्वत: (5 )... पूषन्ननु गा        इहि  ( 6 ) पुनर्नो नष्ठमाजतु ( 10 )

     5. त्वं बलस्य गोमतोऽपावरद्रिवो. विलमू ।.

              त्वां देवा अभिम्युषस्तु ज्यमानास आविषुः ||

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देवता अग्नि इस यज्ञकी ज्वाला है, शक्ति है और पुरोहित है-मंत्र (स्तोत्र ) के द्वारा ये प्राप्ति होती हैं और वृहस्पति इस मंत्रका पिता है, मरुत् इसके गायक या ब्रह्मा है, (ब्रह्माणो मरुत: ), सरस्वती इसकी अन्तःप्रेरणा है; - इस द्वारा ये प्राप्त होती है और सोम इस रसका देवता है,  तथा अश्विन् इस रसके खोजनेवाले, पा लेनेवाले,  देनेवाले और पीनेवाले हैं । गौएँ हैं प्रकाशकी गौएं, और प्रकाश उषा द्वारा आता है, या सूर्य द्वारा आता है,  जिस सूर्यका कि पूषा एक रूप है और अन्तिम यह कि इन्द्र इन सब देवताओंका मुखिया है, प्रकाशका स्वामी है, 'स्व: कहानेवाले ज्योतिर्मय लोकका अधिपति है,--हमारे कथनानुसार वह प्रकाशमय या दिव्य मन है;  उसके अंदर सब देवता प्रविष्ट होते हैं और छिपे हुए प्रकाशको खोल देनेके उसके कार्यमें हिस्सा लेते हैं ।

 

इसलिये हम समझ सकते हैं कि इसमें पूर्ण औचित्य है कि एक ही विजयके साथ इन भिन्न-भिन्न देवताओंका संबंघ बताया  गया है और मधु-च्छन्दस्के आलंकारिक वर्णनमें इन देवताओंके लिये यह कहा गया है कि ये  'वल' पर प्रहार करनेके लिये इन्द्रके अंदर प्रविष्ट हो जाते हैं | कोई भी बात बिना किसी निश्चित विचारके यूं ही अटकछपच्चुसे या विचारोंकी एक गड़बड़ अस्थिरताके वशीभूत होकर नहीं कही गयी है । वेद अपने वर्णनों-की संगतिमें और अपनी एकवाक्यतामें पूर्ण तथा सुरम्य है ।

 

इसके अतिरिक्त, यह जो प्रकाशको विजय करके जाना है वह वैदिक यज्ञकी महान् क्रियाका केवल एक अंग है । देवताओंको इस यज्ञके द्वारा उन सब वरोंको (विश्वा वार्या ) जीतना होता है जो कि अमरताकी विजय-के लिये आवश्यक हैं और छिपे हुए प्रकाशोंका आविर्भाव करना केवल इनमें-से एक वर है । शक्ति ( अश्व ) भी वैसी ही आवश्यक है जैसा कि प्रकाश  (गौ); केवल इतना ही आवश्यक नहीं है कि 'वल'के पास पहुंचा जाय और उसके जबर्दस्त पंजेसे प्रकाशको जीता जाय, वृत्रका वध करना और जलोंको मुक्त करना भी आवश्यक है; चमकती हुई गौओंके आविर्भावका अभिप्राय है उषाका और सूर्यका उदय होना; यह फिर अधूरा रहता है; बिना यज्ञ, अग्नि और सोमरसके । ये सब वस्तुएं एक ही क्रियाके विभिन्न अंग हैं,  कहीं इनका वर्णन जुदा-जुदा हुआ है, कहीं वर्गोमें, कहीं सबको इकट्ठा मिला-कर इस रूषमें कि मानो यह एक ही क्रिया है,  एक महान् पूर्ण विजय है । और उन्हें अधिगत कर लेनेका परिणाम यह होता है कि वृहत् सत्यका आवि-र्भाव हो जाता है और 'स्व':की प्राप्ति हो जाती है, जो कि ज्योतिर्मय लोक है और जिसे जगह-जगह  'विस्तृत दूसरा लोक' ऊरुम् उ लोकम् केवल

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देवता अग्नि इस यज्ञकी ज्वाला है, शक्ति है और पुरोहित है,--मंत्र (स्तोत्र ) के द्वारा ये प्राप्त होती हैं और बृहस्पति इस मंत्रका पिता है, मरुत् इसके गायक या ब्रह्मा हैं, (ब्रह्माणो मरुत:), सरस्वती इसकी अन्तःप्रेरणा है;--रस द्वारा ये प्राप्त होती हैं और सोम इस रसका देवता है, तथा अश्विन् इस रसके खोजनेवाले, पा लेनेवाले, देनेवाले और पीनवाले  हैं । गौएँ हैं प्रकाशकी गौएँ, और प्रकाश उषा द्वारा आता है, या सूर्य द्वारा आता है, जिस सूर्यका कि पूषा एक रूप हे और अन्तिम यह कि इन्द्र इन सब देवताओंका मुखिया है, प्रकाशका स्वामी है, 'स्व:' कहानेवाले ज्योतिर्मय लोकका अधिपति है,--हमारे कथनानुसार वह प्रकाशमय या दिव्य मन हैउसके अंदर सब देवता प्रविष्ट होते हैं और छिपे हुए प्रकाशको खोल देनेके उसके कार्यमें हिस्सा लेते हैं ।

 

इसलिये हम समझ सकते हैं कि इसमें पूर्ण औचित्य है कि एक ही विजयके साथ इन भिन्न-भिन्न देवताओंका संबंध बताया  गया है और मधु-च्छन्दस्के आलंकारिक वर्णनमें इन देवताओंके लिये यह कहा गया है कि ये 'वल' पर प्रहार करनेके लिये इन्द्रके अंदर प्रविष्ट हो जाते है । कोई भी बात बिना किसी निश्चित विचारके यूं ही अटकलपच्चूसे या विचारोंकी एक गड़बड़ अस्थिरताके वशीभूत होकर नहीं कही गयी है । वेद अपने वर्णनों-की संगतिमें और अपनी एकवाक्यतामें पूर्ण तथा. सुरम्य है ।

 

इसके अतिरिक्त, यह जो प्रकाशको विजय करके लाना है वह वैदिक यज्ञकी महान् क्रियाका केवल एक अंग है । देवताओंको इस यज्ञके द्वारा उन सब वरोंको (विश्वा वार्या ) जीतना होता है जो कि अमरताकी विजय-के लिये आवश्यक हैं और छिपे हुए प्रकाशोंका आविर्भाव करना केवल इनमें-से एक वर है । शक्ति (अश्व) भी वैसी ही आवश्यक है जैसा कि प्रकाश  (गौ) केवल इतना ही आवश्यक नहीं है कि 'वल'के पास पहुंचा जाय और उसके जबर्दस्त पंजेसे प्रकाशको जीता जाय, वृत्रका वध करना और जलोंको मुक्त करना भी आवश्यक है; चमकती हुई गौओंके आविर्भावका अभिप्राय है उषाका और सूर्यका उदय होना; यह फिर अधूरा रहता है, बिना यज्ञ, अग्नि और सोमरसके | ये सब वस्तुएं एक ही क्रियाके विभिन्न अंग हैं,  .कहीं इनका वर्णन जुदा-जुदा हुआ है, कहीं वर्गोंमें, कहीं सबको इकट्ठा मिला-कर इस रूपमें कि मानो यह एक ही क्रिया हैं, एक महान् पूर्ण विजय है । और उन्हें अधिगत कर लेनेका परिणाम यह होता है कि बृहत् सत्यका आवि-र्भाव हो जाता है और 'स्व':की प्राप्ति हो जाती है, जो कि ज्योतिर्मय लोक है और जिसे जगह-जगह 'विस्तृत दूसरा लोक', उरुम् उ लोकम् या केवल

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'दूसरा लोक', उ लोकम् कहा है । पहले हमे इस एकताको अच्छी तरह हृदयंगम कर लेना चाहिये यदि हम ऋग्वेदके विविध संदर्भोंमें आनेवाले इन प्रतीकोंका पृथक्-पृथक् परिचय हृदयंगम करना चाहते हैं ।

 

इस प्रकार 6.73 में जिसका हम पहले भी उल्लेख कर चुके हैं, हम तीन मंत्रोंका एक छोटा सा सूक्त पाते हैं जिसमें ये प्रतीक-शब्द संक्षेपमें अपनी एकताके साथ इकट्ठे रखे हुए हैं; इसके लिये यह भी कहा जा सकता है कि यह वेदके उन स्मारक सूक्तोंमेंसे एक है जो वेदके अभिप्रायकी और इसके प्रतीकवादकी एकताको स्मरण कराते रहनेका काम करते हैं । 

 

''वह जो पहाड़ीको तोड़नेवाला है, सबसे पहले उत्पन्न हुआ, सत्यसे युक्त, बृहस्पति जो आंगिरस है, हविको देनेवाला है, दो लोकोंमें व्याप्त होनेवाला, (सूर्यके ) ताप और प्रकाशमें रहनेवाला, हमारा पिता है, वह वृषभकी तरह दो लोकों (द्यावापृथिवी ) में जोरसे गर्जता है ( 1 ) । बृह-स्थति, जिसने कि यात्री मनुष्यके लिये, देवताओंके आवाहनमें, उस दूसरे लोकको रचा है, वृत्रशक्तियोंका हनन करता हुआ नगरोंको तोड़कर खोल देता है, शत्रुओंको जीतता हुआ और अमित्रोंका संग्रामोंमें पराभव करता हुआ ( 2 ) । बृहस्पति उसके लिये खजानोंको जीतता है, यह देव गौओंसे भरे हुए बड़े-बड़े बाड़ोंको जीत लेता है, 'स्व:'के लोककी विजयको चाहता हुआ, अपराजेय, बृहस्पति प्रकाशके मंत्रों द्वारा (अर्कै: ) शत्रुका वध कर देता है ( 3 ) ।"1 एक साथ यहाँ हम इस अनेकमुख प्रतीकवादकी एकता-को देखते हैं ।

 

एक दूसरे स्थलमें जिसकी भाषा अपेक्षाकृत अधिक रहस्यमय है, उषाके विचारका और सूर्यके लुप्त प्रकाशकी पुन: प्राप्ति या नूतन  उत्पत्तिका वर्णन आता है, जिसका कि बृहस्पतिके संक्षिप्त सूक्तमें स्पष्ट तौरसे जिक्र नहीं आ सका है । यह सोमकी स्तुतिमें है, जिसका प्रारंभिक वाक्य पहले भी उद्धृत किया जा चुका है, ( 6.44.22 ) ''इस देव (सोम ) ने शक्ति द्वारा पैदा होकर अपने साथी इन्द्रके साथ पणिको ठहराया;  इसीने अपने अशिव 

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1.  यो अद्रिभित् प्रथमजा ॠतावा बृहस्पतिराअङ्गिरसो हविष्मान् ।

        द्विबर्हज्मा प्राघर्मसत् पिता न आ रोदसी वृषभो रोरवीति ।। १।।

जनाय चिद् य ईवत उ लोकं बृहस्पतिर्देवहुतौ चकार ।

ध्यन् वृत्राणि वि पुरी दर्दरीति जयच्छत्रुंरमित्रान् पूत्सु साहन् ।।२।।

बृहस्पति: समजयद् वसूनि महो व्रजान् गोमतो देव एषः ।

अप: सिषासन्त्स्वरप्रतीतो बृहस्पतिर्हन्त्यमित्रमर्कै: ।।३।।    673

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पिता (विभक्त सत्ता ) के पाससे युद्धके हथियारोंको और ज्ञानके रूपोंको  (.माया:) छीना ।22।  इसीने उषाओंको शोभन पतिवाला किया, इसीने सूर्यके अन्दर ज्योतिको रचा, इसीने द्युलोकमें-इसके दीप्यमान प्रदेशों (स्व: के तीन लोकों ) में--( अमरत्वके ) त्रिविध तत्त्वको, और त्रिविभक्त लोकोंमें छिपे हुए अमरत्वको पाया (यह अमृत का पृथक्-पृथक् हिस्सोंमें देना है जिसका कि अत्रिके अग्निको संबोधित किये गये सूक्तमें वर्णन आया है, सोम-का त्रिविध हव्य है जो कि तीन स्तरों पर, 'त्रिषु सानुषु', शरीर, प्राण और मन पर दिया गया है ) ।23|   इसीने द्यावापृथिवीको थामा, इसीने सात रश्मियोंवाले रथको जोड़ा । इसीने अपनी शक्तिके द्वारा ( मधु या घृत के ) पके फलको गौओंमें रखा और दस गतियोंवाले स्रोतको भी ।"1

 

यह मुझे सचमुच बड़ी हैरानीकी बात लगती है कि इतने तेज और आला दिमाग ऐसे सूक्तोंको जैसे कि ये है पढ़ गये और उन्हें यह समझ-में न आया कि ये प्रतीकवादियों और रहस्यवादियोंकी पवित्र, धार्मिक कवि-ताएं हैं, न कि प्रकृति-पूजक जंगलियोंके गीत और न उन असभ्य आर्य आक्रान्ताओंके जो कि सभ्य और वैदान्तिक द्रविड़ियोंसे लड रहे थे ।

 

अब हम शीघ्रताके साथ कुछ दूसरे स्थलोंको देख जायं जिनमें कि इन प्रतीकोंका अपेक्षाकृत अधिक बिखरा हुआ संकलन पाया जाता है । सबसे पहले हम यह पाते हैं कि पहाड़ीमें बने हुए गुफारूपी बाड़ेके इस अलंकार-में गौ और अश्व इकट्ठे आते हैं, जैसे कि अन्यत्र भी हम यही बात देखते हैं । यह हम देख चुके हैं कि पूषाको पुकारा गया है कि वह गौओंको खोजकर लाये और घोड़ोंकी रक्षा करे । आर्योंकी संपत्तिके ये दो रूप हमेशा लुटेरों ही की दया पर ? पर आइये; हम देखें । ''इस प्रकार सोमके आनंदमें आकर तूने, ओ वीर ( इन्द्र ) ! गाय और घोड़ेके बाड़ेको तोड़कर खोल दिया, एक नगरकी न्याईं ( 8. 32. 5 ) ।2  हमारे लिये तू बाड़ेको तोड़कर सहस्रों गायों और घोड़ोंको खोल दे । ( 8.34.14 ) ।"3  "है 

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1.  अयं देव: सहसा जायमान इन्द्रेण यजा पणिमस्तभायत् ।

  अयं स्वस्य पितुरायुधानीन्दुरमुष्णादशिवस्य माया: ।।२२।।

  अयमकृणोदुषस: सुपत्नीरयं सूर्ये अदषाज्ज्योतिरन्त:

  अयं त्रिधातु दिवि रोचनेषु त्रितेषु विन्ददमृतं निगूळहम् ।।२३।।

  अयं द्यावापृथिवी विष्कभायदयं रथमपुनक् सप्तरश्मिम् ।

  अयं गोष शच्या पक्वमन्त: दाधार दशयन्त्रमुत्सम् ।।२४।। ( 6.44 ) 

2. स गोरश्वस्य वि व्रजं मन्दान: सोम्येभ्यः । पुरं न शूर दर्षसि ।।

3. आ नो गव्यान्यश्वा सहस्त्रा शूर दुर्दृहि |

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इन्द्र !  तू जिसे गौ, अश्व और अविनश्वर सुखको धारण करता है, उसे तू यज्ञकर्त्ताके अन्दर स्थापित कर, पणिके अन्दर नहीं, उसे जो नींदमें पड़ा है, कर्म नहीं कर रहा है और देवोंको नहीं ढूंढ़ रहा है, अपनी ही चालोंसे मरने दे; उसके पश्चात् (हमारे अन्दर ) निरन्तर ऐश्वर्यको रख जो अधिका-घिक पुष्ट होते जानेवाला हो, (8 .97.2-3 ) ।"1

 

एक दूसरे मंत्रमें पणियोंके लिये कहा गया है कि वे गौ और घोड़ोंकी संपत्तिको रोक रखते हैं, अवरुद्ध रखते हैं । हमेशा ये वे शक्तियाँ होती हैं जो अभीप्सित संपत्तिको पा तो लेती हैं, पर इसे काममें नहीं लातीं, नींदमें पड़े रहना पसंद करती हैं, दिव्य कर्म (व्रत ) को उपेक्षा करती हैं और ये ऐसी शक्तियाँ हैं जिन्हें अवश्य नष्ट हो जाना या जीत लिया जाना चाहिये इससे पहले कि संपत्ति सुरक्षित रूपसे यज्ञकर्त्ताके हाथमें आ सके और हमेशा ये 'गौ' और 'घोड़े' उस संपत्तिको सूचित करते हैं जो छिपी पड़ी है और कारागारमें बन्द है और जो किसी दिव्य पराक्रमके द्वारा खोले जाने तथा कारागारसे छुड़ाये जानेकी अपेक्षा रखती है ।

 

चमकनेवाली गौओंकी इस विजयके साथ उषा और सूर्यकी विजयका या उनके जन्म होनेका अथवा प्रकाशित होनेका भी संबंध जड़ा हुआ है, पर यह एक ऐसा विषय चल पड़ता है जिसके अभिप्राय पर हमें एक दूसरे अध्यायमें विचार करना होगा । और गौओं, उषा तथा सूर्यके साथ संबंध जुड़ा हुआ है जलोंका; क्योंकि जलोंके बंधनमुक्त होनेके साथ वृत्रका वध होना और गौओंके बंघन-मुक्त होनेके साथ 'वल'का पराजित होना ये दोनों परस्पर सहचरी गाथाएं हैं । ऐसी बात नहीं कि ये दोनों कथानक बिलकुल एक दूसरेसे स्वतंत्र हों और आपसमें इनका कोई संबंध न हो । कुछ स्थलों-में, जैसे 1.32.4 में, हम यहाँतक देखते हैं कि वृत्रके वधको सूर्य, उषा और द्युलोकके जन्मका पूर्ववर्ती कहा गया है और इसी प्रकार कुछ अन्य संदर्भोंमें पहाड़ीके खुलनेको जलोंके प्रवाहित होनेका पूर्ववर्ती समझा गया है । दोनों-के सामान्य संबंधके लिये हम निम्नलिखित संदर्भो पर ध्यान दे सकते हैं- 

 

( 7.90.4 ) 'पूर्ण रूपसे जगमगाती हुई और अहिंसित उषाएं खिल उठीं; ध्यान करते हुए, उन्होंने (अंगिरसोंने ) विस्तृत ज्योतिको पाया

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1. यमिन्द्व दधिषे त्यमश्वं गां भागमध्ययम्  ।

  यजमाने सुन्यति दक्षिणायति तस्मिन् तं धेहि मा पणौ ।

  य इन्द्र सस्त्यव्रतोइनुश्वापमदेवयु: ।

  स्वै: ष एवैर्मुमुरत् पोष्यं रयिं सनुतर्धेहि तं तत: ।।

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उन्होंने जो इच्छुक थे, गौओंके विस्तारको खोल दिया और उनके लिये द्युलॉक से जल प्रस्रवित हुए ।'1

( 1. 72..8 ) ' यथार्थ विचारके द्वारा द्युलोककी सात ( नदियों ) ने सत्य-को जान लिया और सुखके द्वारोंको जान लिया; सरमाने गौओंके दृढ़ विस्तारको ढूंढ़ लिया और उसके द्वारा मानवी प्रजा सुख भोगती है ।''2

( 1.100.18 ) इन्द्र तथा मरुतोंके विषयमें, 'उसने अपने चमकते हुए सखाओंके साथ क्षेत्रको अधिगत किया, सूर्यको अधिगत किया, लोंको अधि-गत किया ।'3

( 5.14.4 ) अग्निके विषयमें, ' अग्नि उत्पन्न होकर दस्युओंका हनन करता हुआ, ज्योतिसे अन्धकारका हनन करता हुआ, चमकने लगा; उसने गौओंको, जलोंको और स्व:को पा लिया ।'4

( 6.60.2 ) इन्द्र और अग्निके बिषयमें, 'तुम दोनोंने युद्ध किया । गौओंके लिये, जलोंके लिये, स्व: कैं लिये, उषाओंके लिये जो छिन गयी थीं; हे इन्द्र ! हे अग्ने ! तू ( हमारे लिये ) प्रदेशोंको, स्व:उको, जगमगाती उषाओंको, जलोंको और गौओंको एकत्र करता है ।''5

( 1.32.12 ) इन्द्रके विषयमें, ' ओ वीर! तूने गौको जीता, तूने सोम-को जीता; तूने सात नदियोंको अपने स्रोतमें बहनेके लिये ढीला छोड़ दिया ।''6

अन्तिम उद्धरणमें हम देखते हैं कि इन्द्रकी विजित वस्तुओंके बीचमें सोम भी गौओंके साथ जुड़ा हुआ है । प्रायश: सोमका मद ही वह शक्ति होती है जिसमें भरकर इन्द्र गौओंको जीतता है; उदाहरणके लिये देखो--3.43.7, सोम 'जिसके मदमें तूने गौओंके बाड़ोंको  खोल दिया';7 2.15.8,  'उसने अंगिरसोंसे स्तुत होकर, 'बल' को छिन्न-भिन्न, कर दिया और पर्वतके

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1.  उच्छन्नुषस: सुविना अरिप्रा उरु ज्योतिर्विविदुर्दीध्याना:

   गव्यं चिदूर्वमुशिजो वि वव्रुस्तेषामनु प्रदिव: सस्त्रुराप: ।।

2. स्वाध्यो दिव आ सप्त यह्वी रायो दुरो व्यृतज्ञा अजानन् ।

  विदद् गव्यं सरमा दृक्हमूर्व येना नु कं मानुषी भोजते विट् ।। 

3. सनत् क्षेत्र सखिभि: श्वित्न्येभिः  सनत् सूर्य सनदपः सुव्रज्र:

4. अग्निर्जातो अरोचत ध्नन् वस्यूञ्चोतिषा तम: । अविन्दद् गा अप: स्व: ।। 

5. ता योधिष्टमभि गा इन्द्र नूनमप: स्वरुषसो अग्न ऊळहाः |

  दिश: स्वरुषस इन्द्र चित्रा अपो गा अग्ने युवसे नियुत्वान् ।।

6. अजयो गा अजय: शूर सोमंमवासृ: सर्तवे सप्त सिन्धुन् ।

7. यस्य मदे अप गोत्रा वयर्थ ।'

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दृढ़ स्थानोंको उछाल फेंका; उसने इनकी कृत्रिम बाधाओंको अलग हटा दिया; ये सब काम इन्द्रने सोमके मदमें किये ।'1 फिर भी, कहीं-कहीं यह क्रिया उलट गयी है और प्रकाश सोम-रसके आनंदको लानेवाला हो गया है, अथवा ये दोनों एक साथ आते है जैसे 1 .62.5 में ''ओ कार्योको पूर्ण करनेवाले ! अंगिरसोंसे स्तुति किये गये तूने उषाके साथ (या उषाके द्वारा ), सूर्यके साथ (या सूर्यके द्वारा ) और गौओंके साथ (या गौओंके द्वारा ) सोम-को खोल दिया ।"2

अग्नि भी, सोमकी तरह, यज्ञका एक अनिवार्य अंग है और इसलिये हम अग्निको भी परस्पर संबंध प्रदर्शित करनेवाले इन सूत्रोंमें सम्मिलित हुआ पाते हैं, जैसे 7.99.4 में, 'सूर्य, उषा और अग्निको प्रादुर्भूत करते हुए तुम दोने विस्तृत दूसरे लोकको यज्ञके लिये (यज्ञके उद्देश्यके रूपमें ) रचा ।'3  और इसी सूत्रको हम  3.31.1 54 में पाते हैं, फर्क इतना है कि वहाँ इसके साथ 'मार्ग' (गातु ) और जुड़ गया है, और यही सूत्र 7.44.35 भी है, पर वहाँ इनके अतिरिक्त 'गौ' का नाम अधिक है ।

 

इन उद्धरणोंसे यह प्रकट हो जायगा कि वेदके भिन्न-भिन्न प्रतीक और रूपक कैसी घनिष्ठताके साथ आपसमें जुड़े हुए हैं । और इसलिये हम वेद-की व्याख्याके सच्चे रास्तेसे चूक जायँगे यदि हम अंगिरसों तथा पणियोंके कथानकको इस रूपमें लेंगे कि यह एक औरोंसे अलग ही स्वतंत्र कथानक है, जिसकी हम अपनी मर्जीसे जैसी चाहें व्याख्या कर सकते हैं, बिना ही इस बातकी विशेष सावधानी रखे कि हमारी व्याख्या वेदके सामान्य विचार- के साथ अनुकूल भी बैठती है, और बिना ही उस प्रकाशका ध्यान रखे जो वेदके इस सामान्य विचार द्वारा कथानककी उस आलंकारिक भाषा पर जिसमें कि यह वर्णित किया गया है पड़ता है ।

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1. भिनद् थलमङ्गि:रोभिर्तानो वि पर्षतस्य दृहितान्यैरत् ।

  रिणग्रोधांसि कृत्रिमाष्येषां सोमस्य ता मद इन्द्रश्चकार । । 

2. गृणानो अत्रिग्रोभिर्दस्म विवरुषसा सूयेंण गोभिरन्धः । 

3. उरुं यज्ञाय चक्रथुरु लोकं जनयन्ता सूर्यमुषासमग्निम् । 

4. इन्द्रो नृभिरजनद् दीवान: साकं सूर्यमुषसं गातुमग्निम् । 

5. अग्निमुप ब्रुव उषसं सूर्य गाम् ।

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